इसको लेकर कई लौकिक मान्यताएं विशेष प्रचलित हैं। शास्त्र की माने तो इस प्रकार है की पितृ पूजा में विधि प्रधान होती है जब कि देव पूजन में भावना का प्राधान्य होता है जिसकार्य में विधान का महत्व हो उसमें सावधानी ज्यादा रखनी होती है ताकि कोई चूक न हो।
क्योंकि श्राद्ध का संबंध हमारे पूर्वजों से होता है उनके निमित्त श्रद्धा से किया गया कार्य ही श्राद्ध कहलाता है श्राद्ध काल का संबंध करुणा रस प्राधान्य है। जब की मांगलिक कामों में जिसमें प्रमुख विवाह/ गृह प्रवेश/ उपनयन इत्यादि हैं उन्हें श्रृंगार का समावेश होता है।
इसी कारण इस समय इन कामों का करना निषेध है क्योंकी करुणा और श्रृंगार का समन्वय संभव ही नहीं हो सकता इसलिए मांगलिक कार्यों को इस पक्ष में निषेध माना गया है।
लेकिन शुभ का मतलव जिसके परिणाम शुभ हों वह तो इस पक्ष में होते ही हैं जैसे भोजन/ दान/ कथा इत्यादि
मांगलिक अर्थात नाच गाना हर्षौल्लास वगैरह का इस पक्ष में निषेध समझना चाहिए
क्योंकि तिथियों की संख्या 16 ही होती है किसी न किसी दिन परिवार में किसी न किसी की मृत्यु इन्हीं तिथियों में हुई होती है इसलिए पूरे 16 दिन हमें सादगी पूर्वक जीवन गुजारना चाहिए और अपने पितरों का स्मरण/ दान पुन्य कथा, श्रवण आदि करनी चाहिए। देव शयन एकादशी से देवोत्थान एकादशी तक भगवन विष्णु का शयन काल होता है इसलिए भी इस समय कोई मुहूर्त नहीं होता है।
गुरुवार, 15 सितंबर 2016
पितृपक्ष में क्यों वर्जित है शुभकार्य
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ज्योतिष
पढ़ाई का विषय हमेशा साइंस रहा। बी एससी इलेट्रॉनिक्स से करने के बाद अचानक पत्रकारिता की तरफ रूझान बढ़ा। नतीजतन आज मेरा व्यवसाय और शौक
दोनों यही बन गए।
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