मानव जीवन का परम लक्ष्य सद्गुणों में वृद्धि के साथ देवत्व की प्राप्ति है, परंतु काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे आसुरी भाव उसमें सबसे बड़ा विघ्न पैदा करते हैं। ऐसे में भगवान श्री गणेश की साधना, उपासना करके सभी कार्यों में निर्विघ्नता पाई जा सकती है। समस्त मांगलिक कार्यों के आरम्भ में श्री गणेश का पूजन, स्तवन, स्मरण, नमन आदि का विधान भी है। विद्यारंभ या व्यावसायिक बही-खातों के प्रथम पृष्ठ पर 'श्री गणेशाय नम:' मांगलिक वाक्य अवश्य लिखा जाता है।
श्री गणेश का हर अंग शिक्षा का द्योतक
1. हाथी सी काया यानी बुद्धि, धैर्य एवं गांभीर्य की प्रधानता।
2. बड़े कान इस बात के द्योतक हैं कि सबकी सुनने के बाद धीरता एवं गम्भीरतापूर्वक विचार करने वाला व्यक्ति ही अपने कार्यक्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है।
3. श्री गणेशजी का विशाल व्यक्तित्व यह प्रकट करता है कि जिस महापुरुष में सुबुद्धि जितनी विशाल होती है, उसकी कुबुद्धि उतनी ही छोटी होती है।
4. श्री गणेश का बौना स्वरूप इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति सरलता नम्रता आदि सद्गुणों के साथ स्वयं को छोटा मानता हुआ अपने प्रत्येक कार्य को प्रभु को अर्पण करता हुआ चले ताकि उसमें अहंकार के भाव उत्पन्न न हों।
5. श्री गणपति 'लम्बोदर' हैं। उनका मोटा उदर इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति को सबका भला बुरा सुनकर उसे अनावश्यक प्रकाशित नहीं करना चाहिए।
बुद्धि-विवेक के अधिष्ठाता
जीवन में इहलोक-परलोक को सुधारने के लिए ज्ञान-विवेक की आवश्यकता होती है। इसके अधिष्ठाता देवता श्री गणेश हैं। गीता में दो बुद्धियां बताई गई हैं। जो बुद्धि संसार के द्वैतभाव को नष्ट कर अद्वैतभाव स्वरूप सच्चिदानंद परब्रह्म में अवस्थान करा दे, वह सुबुद्धि और जो परमात्मा को विषय न करती हुई अद्वैतमय परमत्त्व में संसार के प्रपंच का विस्तार करे वह कुबुद्धि होती है। सुबुद्धि में सांसारिक प्रपंच क्षीण होकर अद्वैतभाव में लीन होने के भाव को सूचित करने के लिए श्री गणेश 'गजवंदन' हैं।
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