मंगलवार, 9 अगस्त 2016

चक्रवर्ती महाराजा वीर विक्रमादित्य कुछ कही कुछ अनकही कथा

विक्रमादित्य के पूण्य प्रताप तथा उनके चक्र वर्ती होने की कई कथाये है परन्तु मुगलो तथा अंग्रेजों ने सैकड़ो वर्षो तक भारत देश को गुलामी में जकड़े रखा साथ ही भारत वर्ष का गौरवशाली इतिहास भी नष्ट भ्रष्ट कर दिया, तथा इसमें विराट व्यक्तित्व के महान पुरुषो को हाशिये पर कर दिया तथा अपने हितों के साधने हेतु मनमाने तथ्य भी जोड़ दिये। वास्तव में विक्रमादित्य अत्यंत वीर चक्रवर्ती रजा थे जिनके बारे में कुछ तथ्य नष्ट हो जाने पर कुछ भिन्न प्रमाण पर कुछ कथाये प्रचलित हैं।

विक्रम संवत का प्रवर्तन अर्थात प्रारम्भ करने वाले चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध विक्रमादित्य का जन्म कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व हुआ और उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठने वाले चक्रवर्ती सम्राट थे । जिनके दरबार में उपस्थित रहने वाले नवरत्न आज भी प्रसिद्ध हैं । इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित माना जाता है। 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में रचित ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ में इस संवत के विक्रमादित्य द्वारा प्रवर्तन किये जाने की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया। कुछ ग्रंथों के अनुसार इन्द्रप्रस्थ के राजा राजपाल (36 वर्ष) को सामंत महानपाल ने वध कर मात्र एक पीढ़ी में चौदह वर्ष तक राज्य किया। राजा महानपाल के राज्य पर राजा विक्रमादित्य ने अवन्तिका (उज्जैन ) से युद्ध किया तथा इस युद्ध में महानपाल मारा गया  तब राजा विक्रमादित्य ने एक पीढ़ी में 93 वर्ष तक राज्य किया। राजा विक्रमादित्य को शालिवाहन का उमराव समुद्रपाल योगी( पैठण )ने एक युद्ध में धोखे से हत्या की । इसके बाद वह और उसकी सोलह पीढिय़ों ने उज्जैन पर 372 वर्ष चार मास सत्ताईस दिन तक राज्य किया।

महाराजा विक्रमादित्य के सम्बन्ध में भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में विस्तृत विवरण अंकित मिलता है। भविष्य पुराण के अनुसार नववाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस समय उनका शासन अरब तक फैला हुआ था और उन्होंने अरब देश में एक ही स्थान पर 360 मंदिरों का निर्माण करवाया था जिसके मध्य में मक्केश्वर महादेव विराजमान थे।विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में भी वर्णन मिलता है। प्राचीन भारत के साहित्य के अनुसार विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला हुआ था और संपूर्ण विश्व उनके नाम से परिचित था। फिर भी विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जाबूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथकीय चरित्र बनाने का हर सम्भव प्रयास किया क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति के प्रतीक थे जबकि अंग्रेजों को अपने आपको सर्वोपरि और फिर भारत को अनंत काल तक दासता की बेड़ी में जकड़े रहने के लिए यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। लेकिन ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन से ठीक इसके विपरीत इस सत्य का सत्यापन होता है ।

एक कथा जो चक्र वर्ती सम्राट विक्रमादित्य के प्रताप तथा प्रभाव को दर्शाती हैं तथा ज्यादा प्रचलित हैं वो यह की कश्मीर के एक राजा मेघवाहन हुए हैं । जिन्होंने भारत में बाहर वर्षीय कुम्भों के समारोह की प्रथा आरम्भ की थी। मेघवाहन का पुत्र प्रवरसेन था और उसके दो पुत्र थे हिरण्य और तोरमाण।दोनों भाई प्रेमपूर्वक राज्य कार्य मिलकर चलाते थे। तोरमाण राज्य की अर्थ व्यवस्था देखता था। उस काल में मुद्राएँ साहूकार चलाते थे। तोरमाण की पत्नी काशिराज की पुत्री होने से अपने पिता के राज्य की प्रथा चलाने की प्रेरणा अपने पति को देने लगी और राज्य की ओर से निश्चित भार की दीनार नाम की मुद्रा प्रचलित कर दी गई। मुद्रा पर नाम तोरमाण का नाम मुद्रित किया गया।बड़े भाई हिरण्य को उसकी पत्नी ने भडक़ाया और कहा कि अपने नाम से मुद्रा चलाकर छोटा भाई स्वयं राजा बनना चाहता है। बड़े भाई हिरण्य को जब इस पर संदेह हुआ तो उसने छोटे भाई को बन्दीगृह में डाल दिया।उसकी पत्नी अंजना उसके साथ ही बन्दीगृह में रहने लगी। वहाँ उसके गर्भठहरा तो वह बन्दीगृह से किसी तरह निकल भागी । ऐसी स्थिति सुदूर पूर्व में राज्य के भीतर ही एक गाँव में एक कुम्हार के घर में छुपे रहकर उसने एक पुत्र को जन्म दिया और पुत्र का नाम उसके बाबा के नाम पर प्रवरसेन रख दिया। माँ को भय था कि हिरण्य अपनी पत्नी के सिखाने पर उसके पुत्र को कहीं मरवा न दे इस कारण वह गुप्त स्थान पर एक कुम्हार के परिवार में रहती हुई पुत्र का गाँव में ही पालन पोषण करती रही। कुछ काल के उपरांत बन्दीगृह में तोरमाण का देहान्त हो गया और कुछ ही समय उपरान्त हिरण्य भी निसंतान मर गया। इस प्रकार राज्य राजाविहीन हो गया। तब मन्त्रिगण मंत्रीसभा बनाकर राज्य चलाने लगे। कई वर्ष तक यह मन्त्रिमण्डल राज्य चलाता रहा। इस काल में मन्त्रियों में कोई प्रमुख नहीं था। इस कारण सब लूट खसोट करने लगे और राज्य में अराजकता बढऩे लगी तो मन्त्रियों ने यह उचित समझा कि चक्र वर्ती महाराजा विक्रमादित्य से मदद ली जाये तथा उनके अधीन किसी राजा या उनके दरबार के मंत्री को राज्य की बाग़ डोर सँभालने दी जाय। तब विक्रमादित्य ने अपने दरबार के मंत्री मात्रगुप्त को इस राज्य में राज करने नियुक्त किया था। भारत सम्राट विक्रमादित्य के विषय में राजतरंगगिणी में कहा गया है कि वह शकों को देश से बाहर करने वाला था। इससे यह भास मिलता है कि वह विक्रमादित्य गुप्त परिवार का शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था। इससे यह अनुमान भी ठीक प्रतीत होता है कि मातत्रगुप्त विख्यात कवि कालिदास ही था। एक बात और भी इस कल्पना का समर्थन करती है। वह यह कि कालिदास के मातापिता का ज्ञान नहीं। ज्ञातव्य हो कि कुछ इतिहासकार इस विक्रमादित्य को गुप्त परिवार का नहीं मानते और न ही मातृगुप्त को रघुवंश का रचियता मानते हैं।कुछ इतिहासकारों का विचार है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को उसके पिता समुद्रगुप्त ने तब ही विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित कर दिया था जब वह राजकुमार ही था। वह उस समय भी शकों से युद्ध में बहुत शौर्य प्रकट कर चुका था।

संकलन कर्ता: विक्रम सेन

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