मंगलवार, 9 अगस्त 2016

विक्रम संवत के बारे में जानने योग्य अनिवार्य जानकारी

हिन्दू नव वर्ष विक्रमी सम्वत 2073
चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ हुआ हैं।

इस विक्रम संवत के बारे में विस्तृत तथ्य हर भारतीय को जानना आवश्यक सा हैं।

शकों के अत्याचार से भारत को मुक्त
किया सम्राट विक्रमादित्य ने !

ईसा से कई शताब्दी पूर्व भारत भूमि पर
एक साम्राज्य था मालव गण।
मालव गण की राजधानी थी भारत की
प्रसिद्ध नगरी उज्जैन ।
उज्जैन एक प्राचीन गणतंत्र राज्य था ।

प्रजा वात्सल्य राजा नाबोवाहन की
मृत्यु केपश्चात उनके पुत्र गंधर्वसेन ने
“महाराजाधिराज मालवाधिपति”की
उपाधि धारण करके मालव गण को
राजतन्त्र में बदल दिया ।

उस समय भारत में चार शक शासको का
राज्य था।
शक राजाओं के भ्रष्ट आचरणों की चर्चाएँ
सुनकर गंधर्वसेन भी कामुक व निरंकुश
हो गया।

एक बार मालव गण की राजधानी में एक
जैन साध्वी पधारी।
उनके रूप की सुन्दरता की चर्चा के कारण
गंधर्व सेन भी उनके दर्शन करने पहुँच गया।

साध्वी के रूप ने उन्हें कामांध बना दिया।
महाराज ने साध्वी का अपहरण कर लिया
तथा साध्वी के साथ जबरदस्ती विवाह
कर लिया।

अपनी बहन साध्वी के अपहरण के
बाद उनके भाई जैन मुनि कलिकाचार्य
ने राष्ट्रद्रोह करके बदले की भावना से
शक राजाओं को उज्जैन पर हमला
करने के लिए तैयार कर लिया।

शक राजाओं ने चारों ओर से आक्रमण
करके उज्जैन नगरी को जीत लिया।

शोषद वहाँ का शासक बना दिया गया।
गंधर्व सेन साध्वी और अपनी रानी
सोम्यादर्शन के साथ विन्ध्याचल के
वनों में छुप गये।

साध्वी सरस्वती ने महारानी सोम्या से बहुत
दुलार पाया तथा साध्वी ने भी गंधर्व सेन
को अपना पति स्वीकार कर लिया ।

वनों में निवास करते हुए,सरस्वती ने एक
पुत्र को जन्म दिया,जिसका नाम भर्तृहरि
रखा गया।

उसके तीन वर्ष पश्चात महारानी सोम्या
ने भी एक पुत्र को जन्म दिया।
जिसका नाम विक्रम सेन रखा गया।

विंध्याचल के वनों में निवास करते हुए
एक दिन गंधर्व सेन आखेट को गये,
जहाँ वे एक सिंह का शिकार हो गये।

वहीं साध्वी सरस्वती भी अपने भाई
जैन मुनि कलिकाचार्य के राष्ट्रद्रोह से
क्षुब्ध थी।

महाराज की मृत्यु के पश्चात उन्होंने भी
अपने पुत्र भर्तृहरि को महारानी को
सौंपकर अन्न का त्याग कर दिया।
और अपने प्राण त्याग दिए।

उसके पश्चात महारानी सोम्या दोनों पुत्रों
को लेकर कृष्ण भगवान् की नगरी चली गई,
तथा वहाँ पर अज्ञातवास काटने लगी।

दोनों राजकुमारों में भर्तृहरि चिंतनशील
बालक था,तथा विक्रम में एक असाधारण
योद्धा के सभी गुण विद्यमान थे।

अब समय धीरे धीरे समय अपनी काल
परिक्रमा पर तेजी से आगे बढने लगा।

दोनों राजकुमारों को पता चल चुका था
कि शको ने उनके पिता को हराकर
उज्जैन पर अधिकार कर लिया था,
तथा शक दशको से भारतीय जनता
पर अत्याचार कर रहे है।

विक्रम जब युवा हुआ तब वह एक
सुगठित शरीर का स्वामी व एक
महान योद्धा बन चुका था।

धनुषबाण,खडग,असी,त्रिशूल व परशु
आदि में उसका कोई सानी नही था।

अपनी नेतृत्व करने की क्षमता के कारण
उसने एक सैन्य दल भी गठित कर लिया था।

अब समय आ गया था की भारतवर्ष को
शकों से छुटकारा दिलाया जाय।

वीर विक्रम सेन ने अपने मित्रो को संदेश
भेजकर बुला लिया।

सभाओं व मंत्रणा के दौर शुरू हो गए।

निर्णय लिया गया की,सर्वप्रथम उज्जैन
में जमे शक राजा शोशाद व उसके भतीजे
खारोस को युद्ध में पराजित करना होगा।

परन्तु एक अड़चन थी कि उज्जैन पर
आक्रमण के समय सौराष्ट्र का शकराज
भुमक व तक्षशिला का शकराज कुशुलुक
शोशाद की सहायता के लिए आयेंगे।

विक्रम ने कहा कि शक राजाओं के पास
विशाल सेनायें है,संग्राम भयंकर होगा।

उसके मित्रो ने उसे आश्वासन दिया कि
जब तक आप उज्जैन नगरी को नही
जीत लेंगे,तब तक सौराष्ट्र व तक्षशिला
की सेनाओं को हम आपके पास फटकने
भी न देंगे।

विक्रम सेन के इन मित्रों में सौवीर गणराज्य
का युवराज प्रधुम्न,कुनिंद गन राज्य का
युवराज भद्रबाहु,अमर्गुप्त आदि प्रमुख थे।

अब सर्वप्रथम सेना की संख्या को बढ़ाना
व उसको सुदृढ़ करना था।

सेना की संख्या बढ़ाने के लिए गावं गावं
के शिव मंदिरों में भैरव भक्त के नाम
से गावों के युवकों को भर्ती किया जाने
लगा।

सभी युवकों को त्रिशूल प्रदान किए गए।
युवकों को पास के वनों में शस्त्राभ्यास
कराया जाने लगा।
इस कार्य में वनीय क्षेत्र बहुत सहायता
कर रहा था।
इतना बड़ा कार्य होने के बाद भी शकों
को कानोकान भनक भी नही लगी।

कुछ ही समय में भैरव सैनिकों की
संख्या लगभग ५० सहस्त्र हो गई।

भारत वर्ष के वर्तमान की हलचल देखकर
भारत का भविष्य अपने सुनहरे वर्तमान
की कल्पना करने लगा।

लगभग दो वर्ष भागदौड़ में बीत गए।

इसी बीच विक्रम को एक नया सहयोगी
मिल गया “अपिलक”।
अपिलक आन्ध्र के महाराजा शिवमुख
का अनुज था।

अपिलक को भैरव सेना का सेनापति बना
दिया गया।
धन की व्यवस्था का भार अमरगुप्त को
सोपा गया।

अब जहाँ भारत का भविष्य एक चक्रवर्ती
सम्राट के स्वागत के लिए आतुर था,वहीं
चारो शक राजा भारतीय जनता का शोषण
कर रहे थे और विलासी जीवन में लिप्त थे।

ईशा की प्रथम शताब्दी में महाकुम्भ के
अवसर पर सभी भैरव सैनिकों को साधू
-संतो के वेश में उज्जैन के सैकडो गावों
के मंदिरों में ठहरा दिया गया।

प्रत्येक गाँव का मन्दिर मानो शिव के तांडव
के लिए भूमि तैयार कर रहा था।

महाकुम्भ का स्नान समाप्त होते ही सैनिकों
ने अपना अभियान शुरू कर दिया।

भैरव सेना ने उज्जैन व विदिशा को घेर
लिया गया।
भीषण संग्राम हुआ।
विदेशी शकों को बुरी तरह काट डाला गया।
उज्जैन का शासक शोषद भाग खड़ा हुआ।

मथुरा के शासक का पुत्र खारोश विदिशा
के युद्ध में मारा गया।
इस समाचार को सुनते ही सौराष्ट्र व मथुरा
के शासकों ने उज्जैन पर आक्रमण किया।

अब विक्रम के मित्रों की बारी थी,
उन्होंने सौराष्ट्र के शासक भुमक को
भैरव सेना के साथ राह में ही घेर लिया,
तथा उसको बुरी तरह पराजित किया,
तथा अपने मित्र को दिया वचन पूरा
किया।

मथुरा के शक राजा राज्बुल से विक्रम सेन
स्वयं टकरा गया और उसे बंदी बना
लिया।
आंध्र महाराज सत्कारणी के अनुज
अपिलक के नेतृत्व में पूरे मध्य भारत
में भैरव सेना ने अपने तांडव से शक
सेनाओं को समाप्त कर दिया।

विक्रम सेन ने अपने भ्राता भर्तृहरि को
उज्जैन का शासक नियुक्त कराया।

तीनो शक राजाओं के पराजित होने के
बाद तक्षशिला के शक राजा कुशुलुक ने
भी विक्रम से संधि कर ली।

मथुरा के शासक की महारानी ने विक्रम
की माता सौम्या से मिलकर क्षमा मांगी
तथा अपनी पुत्री हंसा के लिए विक्रम सेन
का हाथ मांगा।

महारानी सौम्या ने उस बंधन को तुंरत
स्वीकार कर लिया।

विक्रम के भ्राता भर्तृहरि का मन शासन
से अधिक ध्यान व योग में लगता था
इसलिए उन्होंने राजपाट त्याग कर
सन्यास ले लिया।
उज्जैन नगरी के राजकुमार ने पुन: वर्षों
पश्चात गणतंत्र की स्थापना की व्यवस्था
की परन्तु मित्रों व जनता के आग्रह पर
विक्रम सेन को महाराजाधिराज विक्रमादित्य
के नाम से सिंहासन पर आसीन होना पडा।

लाखों की संख्या में शकों का यज्ञोपवीत
हुआ।
शक हिंदू संस्कृति में ऐसे समा गए जैसे
एक नदी समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व
खो देती है।

विदेशी शकों के आक्रमणों से भारत मुक्त
हुआ तथा हिंदू संस्कृती का प्रसार समस्त
विश्व में हुआ।

इसी शक विजय के उपरांत ईशा से ५७ वर्ष
पूर्व महाराजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक
पर “विक्रमी-संवत” की स्थापना हुई।

आगे आने वाले कई चक्रवर्ती सम्राटों ने
इन्ही सम्राट विक्रमादित्य के नाम की
उपाधि धारण की।
भारतवर्ष के ऐसे वीर शिरोमणि सम्राट
विक्रमादित्य को शत-शत प्रणाम !

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,

सदा सर्वदा सुमंगल ,,,
हर हर महादेव,,,
जय भवानी,,,
जय श्री राम..
 संकलन : विक्रम सेन

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