बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

आंद्रे वायदा: महान सिनेमा का आखिरी आदमी

सिनेमा की नवयथार्थवादी धारा का असर ऋत्विक घटक, गुरुदत्त और मृणाल सेन जैसे भारतीय फ़िल्मकारों पर पड़ा था.
पोलैंड के महान फिल्मकार आँद्रेइ वायदा इसी धारा के अहम फ़िल्मकार थे. इसलिए उनके बारे में जानना और उनके सिनेमा को समझना भारतीय समाज के लिए ज़रूरी है.

नब्बे वर्ष की उम्र में आँद्रेइ वायदा का देहांत सहसा विश्व सिनेमा के उस दौर की याद दिलाता है जब बहुत से देशों में कई बड़े फिल्मकार परदे पर महान कृतियों की रचना कर रहे थे. वो विश्व सिनेमा का स्वर्ण-काल था और सन 1950 से 1960 के दशक में जिन फिल्मों की रचना हुई उन्होंने सिनेमा को महाकाव्य जैसी ऊंचाइयों तक पंहुचाया.

यह भी उल्लेखनीय है कि जब स्वीडन में इंगमार बेयरमान, स्पेन और मेक्सिको में लुईस बुन्वेल, इटली में फेदेरीको फेल्लीनी और मिकेलान्जेलो अन्तोनिओनी, फ्रांस में क्लोद शाब्रोल, ज्यां लुक गोदार, फ्रांसुआ त्रुफो, पोलैंड में आंद्ज़ेई वायदा, हंगरी में मिक्लोस यान्चो और मिलोस फोर्मान, जापान में अकीरा कुरोसावा और यासुजिरो ओजू विश्व सिनेमा की तस्वीर बदल रहे थे, अपने यहाँ सत्यजित रॉय ‘पथेर पांचाली’ (1955) और ‘अपराजितो’ और ऋत्विक घटक भी ‘अजांत्रिक’ और ‘मेघे ढका तारा’ आदि के ज़रिये एक नए सिनेमा की शुरुआत कर रहे थे.

बेयरमान की ‘वाइल्ड स्ट्रॉबेरीज़’ और ‘द सेवेंथ सील’, बुन्वेल की ‘लोस ओल्विदादोस और ‘नाजारीन’ ,फेल्लीनी की ‘ला स्त्रादा’ और ‘ला दोल्चे वीता’, अन्तोनिओनी की ‘लावेंतुरा’, कुरोसावा की ‘राशोमोन’ और ‘सेवेन समुराई’ और ओजु की ‘तोक्यो स्टोरी ‘, सत्यजित रे की ‘पथेर पांचाली और अपराजितो’ ऋत्विक घटक की ‘अजांत्रिक’ और ‘मेघे ढाका तारा’ आदि इस स्वर्णिम युग की शाहकार फ़िल्में हैं.

इन्होंने सिनेमा को मनुष्य के सामाजिक-मानसिक संबंधों की पड़ताल का माध्यम बनाया और सिनेमा को मनोरंजन से हटा कर एक संपूर्ण कला विधा के तौर पर प्रतिष्ठित किया.

ये फिल्में उस नव-यथार्थवाद का अहम पड़ाव थीं जिसकी शुरुआत इटली के वित्तोरियो देसीका की ‘बाइसिकल थीफ’ और लूचीनो विस्कोन्ती की ‘ला तेरा त्रेमा’ जैसी फिल्मों से हुई. इस सिनेमा के पीछे साहित्यिक प्रेरणाएं सक्रिय थीं. आगे चलकर यह नव-यथार्थवाद कई नए सिनेमाई शिल्पों में व्यक्त हुआ.

एक दौर में ये फिल्में अपने यहाँ भी कई शहरों में गठित फिल्म सोसायटियों और विदेशी सांस्कृतिक केन्द्रों में दिखलाई गयीं और हिंदी में ‘दिनमान ‘ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने उन पर नियमित रूप से समीक्षाएं प्रकाशित कीं. दरसल उस दौर के बौद्धिक और साहित्यिक माहौल को समृद्ध करने में इन फिल्मों और उनकी समीक्षाओं का बड़ा योगदान है.

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